Middle East एक बार फिर से अशांति के केंद्र में है। इज़रायल, हमास, और हिजबुल्लाह के बीच बढ़ते संघर्ष ने इस क्षेत्र में संकट को और गहरा कर दिया है। इस संघर्ष के कई आयाम हैं, जिनमें से एक प्रमुख सवाल यह है कि इस पूरे घटनाक्रम में ईरान की क्या भूमिका है। ईरान का इन संगठनों के साथ संबंध और उसकी क्षेत्रीय नीतियां मिडिल ईस्ट में जारी इस संघर्ष को और भी जटिल बना रही हैं।
संघर्ष की पृष्ठभूमि
इज़रायल और फिलिस्तीनी संगठन हमास के बीच का संघर्ष कोई नई बात नहीं है। 1948 में इज़रायल की स्थापना के बाद से यह संघर्ष निरंतर चलता आ रहा है, लेकिन 2007 में हमास के गाजा पट्टी पर नियंत्रण के बाद यह अधिक तीव्र हो गया है। हमास इज़रायल के अस्तित्व को अस्वीकार करता है और इसे नष्ट करने की प्रतिबद्धता जताता है। इज़रायल, जो कि एक यहूदी राज्य है, हमास के इस दृष्टिकोण को अपने अस्तित्व के लिए एक बड़ा खतरा मानता है। इसके परिणामस्वरूप दोनों पक्षों के बीच समय-समय पर घातक संघर्ष होते रहे हैं।
हिजबुल्लाह की भूमिका
हमास के अलावा, हिजबुल्लाह भी मिडिल ईस्ट के इस संघर्ष का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। हिजबुल्लाह एक शिया मुस्लिम संगठन है जो लेबनान में सक्रिय है और इज़रायल के खिलाफ संघर्ष की अगुवाई करता रहा है। यह संगठन 1980 के दशक में ईरान द्वारा समर्थित हुआ था और तब से लेकर आज तक इसे ईरान की व्यापक आर्थिक और सैन्य मदद मिलती रही है। हिजबुल्लाह का इज़रायल के साथ संघर्ष 2006 में सबसे अधिक तीव्र हुआ, जब दोनों पक्षों के बीच एक महीने तक चले युद्ध में भारी जान-माल का नुकसान हुआ था।
ईरान की भूमिका
ईरान इस संघर्ष में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी है। ईरान के इस्लामी क्रांति के बाद से ही यह देश इज़रायल के खिलाफ एक तीव्र विरोधी नीति अपनाए हुए है। ईरान खुद को मिडिल ईस्ट में शिया मुस्लिमों का नेता मानता है और इसका उद्देश्य क्षेत्रीय वर्चस्व हासिल करना है। ईरान ने हमास और हिजबुल्लाह दोनों को वित्तीय और सैन्य सहायता प्रदान की है, ताकि वे इज़रायल के खिलाफ अपने संघर्ष को जारी रख सकें।
ईरान की यह रणनीति मिडिल ईस्ट में अपने प्रभाव को बढ़ाने और इज़रायल को कमजोर करने की कोशिशों का हिस्सा है। इसके तहत ईरान ने इराक, सीरिया, लेबनान, और यमन जैसे देशों में विभिन्न शिया मिलिशिया समूहों का समर्थन किया है। इन देशों में ईरान की गतिविधियां उसे क्षेत्रीय शक्ति बनाए रखने में मदद करती हैं।
हालिया तनाव
हाल ही में इज़रायल और हमास के बीच हिंसा एक बार फिर भड़क उठी है। गाजा पट्टी से इज़रायल पर रॉकेट दागे जा रहे हैं, और इज़रायल इसके जवाब में गाजा पर हवाई हमले कर रहा है। इसी बीच, लेबनान से हिजबुल्लाह के हमले भी बढ़ गए हैं। इस सारे संघर्ष के पीछे ईरान का परोक्ष समर्थन होने की अटकलें तेज हो गई हैं। इज़रायली अधिकारियों का मानना है कि ईरान इन संगठनों को सैन्य उपकरण और वित्तीय सहायता प्रदान कर रहा है, ताकि इज़रायल के खिलाफ दबाव बढ़ाया जा सके।
ईरान का उद्देश्य
ईरान का इस पूरे संघर्ष में उद्देश्य क्षेत्र में अपने प्रभाव को बनाए रखना और विस्तार करना है। इज़रायल को कमजोर करके, ईरान मिडिल ईस्ट में शिया धर्मगुरुओं की सत्ता को मजबूत करना चाहता है। इसके अलावा, यह संघर्ष अमेरिका और इज़रायल के गठजोड़ को कमजोर करने की ईरान की व्यापक रणनीति का भी हिस्सा है। ईरान लंबे समय से इज़रायल और अमेरिका को अपने प्रमुख दुश्मन मानता है और उनके प्रभाव को चुनौती देना उसकी विदेश नीति की एक महत्वपूर्ण दिशा रही है।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य
मिडिल ईस्ट में जारी यह संघर्ष सिर्फ इज़रायल और फिलिस्तीन या इज़रायल और लेबनान के बीच का मुद्दा नहीं है। इसमें ईरान की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाएं, अमेरिका का इज़रायल को समर्थन, और अन्य अरब देशों के हित भी शामिल हैं। अरब दुनिया में भी फिलिस्तीनी मुद्दे को लेकर भावनाएं प्रबल हैं, और कई देश हमास के संघर्ष का समर्थन करते हैं। हालांकि, ईरान के शिया नेतृत्व और सुन्नी अरब देशों के बीच गहरे विभाजन भी हैं, जो इस क्षेत्र में संघर्ष को और जटिल बनाते हैं।
समाधान की चुनौतियां
मिडिल ईस्ट में शांति और स्थिरता हासिल करना एक अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य है। इज़रायल और फिलिस्तीन के बीच कई बार शांति वार्ताएं हुई हैं, लेकिन ये वार्ताएं अभी तक कोई ठोस समाधान निकालने में विफल रही हैं। ईरान का इस संघर्ष में सक्रिय भूमिका निभाना, क्षेत्र में शिया-सुन्नी विभाजन, और इज़रायल के प्रति विभिन्न अरब देशों के दृष्टिकोण ने इस मुद्दे को और अधिक जटिल बना दिया है।
मिडिल ईस्ट में इज़रायल, हमास, और हिजबुल्लाह के बीच का यह संघर्ष क्षेत्रीय शांति के लिए एक बड़ा खतरा बना हुआ है। इस संघर्ष में ईरान की महत्वपूर्ण भूमिका है, जो इन संगठनों को अपने हितों की पूर्ति के लिए समर्थन देता है। जब तक इस क्षेत्रीय विवाद में शामिल पक्ष संवाद और कूटनीति के माध्यम से हल नहीं निकालते, तब तक मिडिल ईस्ट में शांति की संभावना कम ही नजर आती है।